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नाव और पतवार

Updated: Mar 29, 2021


courtsey: trip to Bintan, Indonesia

courtsey: trip to Bintan, Indonesia


हवा के थपेड़ों से झुके वो पेड़ नारियल के सुना रहे थे कहानी अपने बीते हुए कल की

समुद्र की लहरें भी अपने तेज़ उफान से खींच रहीं थी लकीरें, चट्टानों पर, बीते रात आये तूफ़ान की


और वहीँ किनारे की ओट में खड़े हम देख रहे थे रात की कालिख होती मद्धम


घंटों बीत गए हमारी इस प्रतीक्षा में हारने लगे थे हम प्रकृति की इस परीक्षा में पकडे हुए हाथ एक दूसरे का हर पल बढ़ाते रहे हिम्मत की अब बस और कुछ ही हैं क्षण


तभी कहीं दूर आसमान के सिरहाने से बहती आई एक नाव हमारी ओर किनारे पे

किनारे की ओर आता देख लहरों ने उसे अपनी पनाह दी नारियल ने भी पुराने टूटे पत्तों से उसे राहत की छाँव दी


लहरों के शोरगुल में मुझे कुछ सुनाई नहीं देता था शायद नाव कह रही थी की उसे कुछ दिखाई नहीं देता था तोड़ दिए थे पतवार उसके उद्दण्ड तूफ़ान ने बच गए थे बस कुछ टूटे पतरे अब उसके सामान में


सहलाते हुए उसे मैंने थोड़ी सांस लेने को कहा सूरज के आ जाने तक वहीँ हमारे पास रहने को कहा सिहरी सहमी वो वही रेट पर लेट गयी टूटे पत्तों के बीच, वो छुप के कहीं सिमट गयी


रात चहुँओर फैलाये अपना अँधेरा था और आसमान में अब भी बादलों का डेरा था


अचानक नारियल ने अपना तन सीधा किया आँखें मीचीं और बहुत दूर देख कर कहा, “कालिख क्षितिज से फटती नज़र आ रही है दूर गगन में नीलिमा छा रही है ” समुद्र ने भी कहा, ” कुछ लहरें बता रहीं हैं नीले गगन से मिल कर वो अभी अभी आ रहीं हैं ”


“पर कहाँ है सूरज की लालिमा? कहाँ है उसकी वो गरिमा?” फूट पड़ी थी नांव किनारे की एक ओर से बह रहे थे आंसू, उसके पोर-पोर से


सुनाई लहरों ने फिर कहानी बादलों के पार की, ” कम नहीं हुई चमक, सूरज के तलवार की लड़ रहा है वो बादलों से सीना तान के गरिमा कम नहीं हुई अब भी सूरज महान की आ रहा है वो अपने सात घोड़ों पर सवार हे प्रिये! तुम यूँ मानो नहीं हार”


तभी मैंने देखा बादलों के रंग बदल गए उसके कुछ कोने लाल पीले रंगों में ढल गए डरे सहमे हमारे चेहरों पर मुस्कान की लकीर खिंच गयी नाव में भी अब थोड़ी हिम्मत बढ़ गयी


सूरज की किरणें फिर झांकते हुए आयीं एक टूटी लकड़ी दिखा कर पूछा, “ये किसका है भाई? तुममे से इस लकड़ी का मालिक कौन है? जल्दी बताओ! क्यों यहाँ सब मौन हैं?”


चकित थे हम सब उन्हें देख कर अब सूझ नहीं रहे थे हमें ख़ुशी में कोई भी शब्द


डरी सहमी नाव बाहर आई पत्तों के बीच से, “ऐसे बात क्यों कर रहे हो, मुझसे तुम खीज के? क्या बिगाड़ा है मेरी पतवार ने, ऐ किरणों! तुम्हारा? टूटी पतवार के प्रति देखो बर्ताव तुम्हारा!”


“ओह! तो ये पतवार तुम्हारी है? इसी ने एस जगह की ये स्थिति बिगाड़ी है” “ऐ किरणों! क्या कह रही हो, ये तुम लोग? इस सब में नहीं है मेरी पतवार का कोई दोष क्यों अपनी असक्षम्ताओं को तुम इसके माथे मढ़ रही हो? ओ सूर्यकिरणों ! तुम ये क्या कहानी गढ़ रही हो? ”


“इसे कहानी कहती हो तुम, तो पूछो अपनी पतवार से| किसलिए गयी थी ये बीच मझधार में? किसने इसे इतना अच्छा तैरना सिखाया? क्यों भला इसने तूफ़ान को गुस्सा दिलाया? क्यों इसने बीच समुद्र में तूफ़ान को ललकारा कल? ऐ नाव! ना कहो तुम मुझसे की ये है नादान-चंचल


तूफ़ान का गुस्सा हमेशा चरम पर रहता है क्या ये बात तुम्हारी इस पतवार को नहीं पता है? तूफ़ान बिफर जाता है मझधारों में नाव देख कर और बादल भी उमड़ आते हैं उसका बिगड़ा स्वभाव देख कर क्यों इसने अपनी बहादुरी दिखा कर तूफ़ान को रुष्ट किया? क्यों आधी रात में उस शैतान को क्रुद्ध किया? तूफ़ान का क्रोध तो ये सागर भी नहीं समा पाता उसके प्रकोप से तो ये नारियल का पेड़ भी है टूट जाता डर जाते हैं उससे धरती के जानवर बड़े-बड़े फिर कैसे इस पतवार के बल पर पार करने मझधार थे तुम चले?


क्षमता देखी तुमने अपनी नहीं और परिस्थिति कड़ी कर दी इतनी बड़ी मेरी सक्षमताओं पर सवाल तुम करते हो तुम नहीं वो जो इन अवस्थाओं से लड़ते हो”


आंसुओं की फुहार छूट पड़ी पतवार की आँखों से अंधी नांव का भी दिल नाम हो गया किरणों की बातों से


अब तो भोर का पौ भी फट गया था बादलों का घेराव भी छंट गया था पर हम सब अब भी मूक खड़े थे समझ ना आता था ये कैसे मुद्दे उखड रहे थे ये कैसा नया तूफ़ान हमारे किनारे पर था आया नाव की सूझबूझ पर अब मेरे दिमाग ने भी प्रश्न उठाया


नाव इतने में अपनी गलती समझ गयी झटाक से नारियल क पेड़ के पीछे जा खड़ी हुई शर्मसार दबी आवाज़ में फिर वो बोली, “गलती नहीं पतवार की, है वो बड़ी भोली जिद्द थी मेरी ही सागर पार करने की नए देश, नए विचारों को करीब से समझने की समुद्र पार के रिवाजों को जानने की मैं इक्षुक थी न संयम रख पाई मैं जब सारी प्रकृति मेरे सम्मुख थी ये पतवार तो थी बस एक सहायक मेरी इस गलती में ऐ किरणों! न दो इसे कोई सज़ा इसकी इस स्थिति में ”


नाव की बातें सुन किरणे भाव-विभोर हुईं पतवार को निर्दोष समझ नांव के पास ही छोड़ गयीं मासूमियत दिखी उन्हें नांव की मंशा में भी छोड़ गयीं उसे भी वो उस दशा में ही


हम और नारियल के पेड़ खड़े थे अब भी स्तंभित समुद्र की लहरें भी अब तक थी चकित मौसम सुनहरा हो रहा था पर सन्नाटा अपनी चादर फैला चुका था


तभी घायल पतवार ने खुद को सँभालते हुए कहा अपने टूटे फूटे शरीर से नांव के आंसू पोंछते हुए कहा “जीवन नहीं होता हर परिस्थिति को अपना लेने के लिए नहीं निकले थे हम इस पथ पर खुद को आजमाने के लिए इच्छा तो थी आशाओं के पार जाने की जो सोचा है मन में वो कर के दिखने की आज क्यों उस इच्छा को तुम खो रहे हो? ऐसा क्या हुआ जिसपर तुम इतना रो रहे हो?”


नाव आश्चर्य से देख रही थी पतवार की ओर जिसकी आँखें थी उज्जवल और मुख चौकोर, ” पर मेरी ही वजह से आई ये कठिनाई है इन सबकी ये दुर्गति मैंने ही बनायीं है मेरी ही वजह से नारियल ने खोये हैं पत्ते अपने मेरी ही वजह से मछलियाँ लगी हैं तड़पने”


“क्यों हो वजह हो तुम इनके दुःख का तुमने तो बस स्वप्न पूरा किया खुद का इनकी परिस्थिति का कारण ये स्वयं हैं इनकी ही वजह से तूफ़ान में ये अहम् है जो खड़े होते ये तूफ़ान के आगे हमेशा कर न पता वो कभी किसी की ये दुर्दशा जो नौकाएं छोड़ दें तूफानों से लड़ना स्थिर हो जाये हर देश, दुर्गम हो हर ठिकाना ”


नाव को उठा कर फिर पतवार ने समझाया एक बार फिर, टूटे हाथों से उसने, नाव के स्वप्न को जगाया उनकी बातें सुन हमें भी आया होश दिल में भरा हम सबके एक नया जोश


क्रोध अब वेदना में बदलने लागा था हर विवाद इस संवाद से गलने लगा था उनकी कहानी सुन करुणामय प्रक्रिति थी भूली वो आज अपनी गहन परिस्थिति थी


नाव और पतवार की कहानी सुन मैंने भी एक सीख ली थी अपनी स्थिति स्वयं सुधारने की आज एक प्रतिज्ञा की थी जब जाना हो समुद्रों के पार तो काफी है बस एक पतवार फिर क्या डर है किसी तूफ़ान का और क्या है कोई मझधार दृढनिश्चय हो मन में बस इतना ही ज़रूरी है फिर कहाँ ऐसे मन की कोई कामना अधूरी है जो मन संकोच और भय को त्यागने में सक्षम है गंतव्य तक उसी का मार्ग सुगम है

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