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ज़हर की काट

Colorectal cancer organoids stained with Hoechst (blue) and Phalloidin (yellow). Image by Cellesce, copyright National Physical Laboratory. जब छिड़ा हो धड़ में बंदर बांट, और असर प्रलय का बड़ा विराट, तो कैसे हो रोगों का इलाज? कैसे करें ज़हर की काट? एक रूप हो धड़ का छोटा सा, जो काम करे उसके जैसा, उस पर दवाएं टेस्ट करें, और ढूंढें मार्ग उपलब्धि का । जब काम करे ये मॉडल तब, समझें हम सक्षम दवा है क्या, करे काम यही ऑर्गन-ऑन-अ-चिप, दर्शाए मार्ग प्रगति का ।। दवा के परिक्षण के लिए वैज्

कैसे मैं पहचानूँ तुमको 

कैसे मैं पहचानूँ तुमको? कद, काठी या चाल से? कैसे मैं पहचानूँ तुमको? रंगत या बिखरे बाल से? हाय! आँखों की पहले गहराई क्यों नहीं नापी थी! शायद! चेहरे पर खिलती मुस्कान तुम्हारी काफी थी। उफ़! इस मास्क ने मेरा कर दिया है कैसा हाल ये। कैसे मैं पहचानूँ तुमको? कद, काठी या चाल से? पहना था मास्क अभी तक पर्दा नशीन और डाकुओं ने। छुपाते थे पहचान जो अपनी पहना था उन लड़ाकुओं ने। आपदा कैसी आई ये कि प्यार को बाँधा है रुमाल से कैसे मैं पहचानूँ तुमको? कद, काठी या चाल से? इंद्र सा कोई फरेबी कभी न ध

आज मैं बस एक अंक हूं !

REUTERS/DANISH SIDDIQUI आज मैं बस एक अंक हूं । बड़ी सी गिनती का एक छोटा अंग हूं । मेरी पहचान बस नंबरों में है, मेरा अस्तित्व बिखरा आंकड़ों में हैं ।। कल तक मेरा एक नाम था, छोटा ही सही, एक अभिज्ञान था । मेरे परिचित मेरा सम्मान करते थे, मेरे व्यक्तित्व का संज्ञान करते थे ।। आज मैं बस एक अंक हूं । बड़ी सी गिनती का एक छोटा अंग हूं । मेरे पड़ोसी मुझसे कतराते हैं, परिजन भी डरे से नजर आते हैं ।। कल तक मैं एक मजदूर था, अदृश्य था, परिवार से दूर था । फिर भी अपने काम में व्यस्त था, दीन

क्यूंकि मैं कोरोना पॉज़िटिव हूं

(Photo by Piero CRUCIATTI / AFP) (Photo by PIERO CRUCIATTI/AFP via Getty Images) मेरा नाम शायद आपको पता नहीं होगा, जहां अस्पताल मिले मेरा पता वहीं होगा। केस नंबर २०४१ पुकारता हर कोई है, जाति और धर्म का संज्ञान ना कोई है। परिवार जन को हफ्तों में नहीं देखा है, जैसे खिंची हमारे बीच लक्ष्मण की रेखा है। अब वो मुझसे मिलने नहीं आते हैं, बस फोन से ही हाल चाल पूछ जाते हैं। पति भी मुझे देख कर मुंह ढक लेता है, ६ फीट की दूरी की हर बार सबक देता है। डॉक्टर्स और नर्सेस भी मुझसे कतराते हैं,

दीवारें

माना कि थे वो ग़लत और क्रूर अपरम्पार थे । दोषों से वो युक्त थे और पाप के भरमार थे ।। किन्तु दीवारें बना, क्या हमने हत्याएं न कीं? जो हमारे कर हुई, वो न्याय कैसे कब हुईं? क्या दीवारें बनने से आयी कभी कहीं शांति है? भूत के पन्ने पलट लो, इनसे हुई बस क्रांति है! #HindiPoetry #BerlinWall #Poems #FallofBerlinWall #Randomthoughts #Thoughts #Berlin #Germany #Writing

नाम से पहचान

Graphic courtesy: The Times of India एक रोज़ मुझे एक चिट्टी आयी, ‘सालों से तूने, न शक्ल दिखाई, आकर मिलो इस दफ्तर से तुम, साथ में लाना चंदन कुमकुम।’ पहचान पत्र ले जो मैं पहुंची, अफसर ने देखा, ली एक हिचकी, कहा, ‘नाम तेरा पसंद न आया आज से तू कहलायी माया।’ मैंने फिर आपत्ति जताई, ‘ये कौन सा नियम, मेरे भाई?’ ‘नियम? ये कौन सी है चिड़िया? भावना के बल चले है दुनिया।’ ‘भावना आपकी पर जीवन मेरा, नाम बदलना कठिन है फेरा। बदलना होगा हर दफ्तर में, घिसेंगे जूते इस चक्कर में।’ ‘नाम तो तेरा माया

स्वरूप

मैं जब भी देखूँ दर्पण में, कुछ बदल रहा मेरे आँगन में। ये स्वरूप मेरा है या रूप तेरा, मैं सोच रही मन ही मन में।। चादर की सफेदी में अपने, है लगा मुझे भी तू ढकने। एक परत चढ़ी मेरे तन में, कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।। है धुआँ धुआँ फैला नभ में, आंधी है खड़ी सागर तट पे। न नियंत्रण है अब किसी कण में, कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।। आकृतियों से सज्जित प्रांगण है, विकृतियाँ भी मनभावन हैं। परिवर्तन है अंतर्मन में, कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।। #hindipoems #winter #HindiPoetry #Reflections #glob

मारीच की खोज

मैं धरा के जंगलों में ढूंढता मारीच, देखो ! बिछड़े लक्ष्मण और सीता मुझसे किस युग में, न पूछो ! एक उसकी खोज में वर्षों गए हैं बीत मेरे। अब उपासक बन गए हैं उसके ही सब गीत मेरे। मृग बना था स्वर्ण का वह, किसी युग में ज्ञात मुझको। अब तो अनभिज्ञ सा मैं ढूंढता हर पात उसको। मन है उसका बंधक कि मोहन में है जीवन बिताये। किन्तु न अस्तित्व उसका किसी भी क्षण में जान पाए। कौन है वह, क्या है कि वह समक्ष भी है परोक्ष भी है। पाने से उसको ही, अब तो तय हुआ मेरा मोक्ष भी है। वन गगन और पर्वतों पर, ह

ठण्ड की कहानी

यूँ तो हर मौसम की अपनी मनमानी होती है, पर ठण्ड की एक दिलचस्प ही कहानी होती है। धुंध से भीगी रातें तो रूमानी होतीं हैं, पर दिसंबर में सर्दी दंतकड़कड़ानी होती है॥ ठण्ड अपनी चादर हर ओर कुछ ऐसे फैलाता है, नाड़ी का खून enzyme नहीं, तापमान जमाता है। गर्मी की deficiency में रोज़ कौन नाहता है, यह जान कर deodorant मन ही मन इतराता है ॥ सर्दी अपने प्रस्ताव से हमारी हैरानी उकसाती है , इस मौसम में आँसू हमारी नाक बहाती हैं, ठण्ड से कांपते कदमों को आग की गर्मी जमाती है रजाई refugee camp सी नज़र

शिखरों के पार

हृदय को अकुलाता ये विचार है, दृष्टि को रोके जो ये पहाड़ है, बसता क्या शिखरों के उस पार है। उठती अब तल से चीख पुकार है, करती जो अंतः में चिंघाड़ है, छुपा क्या शिखरों के उस पार है। हृदय को नहीं ये स्वीकार है, क्यों यहाँ बंधा तेरा संसार है , जाने क्या शिखरों के उस पार है। तोड़ो, रोकती जो तुमको दीवार है, भू पर धरोहर का अंबार है, देखो क्या शिखरों के उस पार है।। #Inspiration #hindi #Blog #HindiPoetry #motivation #writings #Reflections #poetry #France #Thoughts #Annecy #Writing

शब्दों का हठ

कहते हैं मुझसे कि एक बच्चे की है स्वप्न से बनना, जो पक्षियों के पैरों में छुपकर घोंसले बना लेते हैं। कहते हैं मुझसे कि एक थिरकती लौ की आस सा बनना, जो उजड़ती साँसों को भी हौसला देकर जगा देते हैं। कविताओं के छंद बना जब पतंग सा मैंने उड़ाना चाहा, तो इनमें से कुछ आप ही बिखर गए धागे से खुलकर। पद्य के रस में पीस कर जब इत्र से मैंने फैलाना चाहा, तो इनमें से कुछ स्वयं ही लुप्त हुए बादल में घुलकर। अब उन्हें न ही किसी श्लोक न किसी आयत में बंद होना है, अब उन्हें अपनी उपयुक्तता की परिभाषा

अरण्य का फूल

बेलों लताओं और डालियों पर सजते हैं कितने, रूप रंग सुरभि से शोभित कोमल हैं ये उतने। असंख्य खिलते हैं यहाँ और असंख्य मुरझाते हैं, अज्ञात और अविदित कितने धूल में मिल जाते हैं। दो दिन की ख्याति है कुछ की दो दिन पूजे जाते, फिर कोई न पूछे उन्हें जो वक्ष पर मुरझा जाते। जग रमता उसी को है जो फल का रूप है धरता, अरण्य का वो फूल मूल जो पेट किसी का भरता।। #random #Inspiration #hindi #HindiPoetry #Poems #writings #Reflections #poetry #Thoughts #Writing

काव्य नहीं बंधते

शब्द तो गट्ठर में कितने बांध रखे हैं, स्याही में घुल कलम से वो अब नहीं बहते। हो तरंगित कागज़ों को वो नहीं रंगते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।। बीज तो माटी में निज विलीन होते हैं, किन्तु उनसे लय के अब अंकुर नहीं खिलते। मनस की बेलों पर नव सुमन नहीं सजते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।। मैं पुराने ऊन को फिर उधेड़ बिनती हूँ, पर हठी ये गाँठ हाथों से नहीं खुलते। उलझ खुद में वो नए ढांचे नहीं ढलते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।। अंतः में अटखेलियाँ तो भा

कल्पना की दुनिया

यथार्थ की परत के परोक्ष में, कल्पना की ओट के तले, एक अनोखी सी दुनिया प्रेरित, अबाध्य है पले। चेतन बोध से युक्त सृजन के सूत्रधारों की, अनुपम रचनाओं और उनके रचनाकारों की। सृजन फलता है वहाँ विचारों के आधार पर। उत्पत्तियाँ होतीं हैं भावना की ललकार पर। सजीव हो उठती हैं आकृतियाँ ह्रदय को निचोड़ने मात्र से, हर तृष्णा सदृश हो जाती है अंतः के अतल पात्र से। इसके उर में जीते वो जीव रेंगते रेंगते कभी खड़े हो जाते हैं। कभी उद्वेग से भर कर एक आंदोलन छेड़ जाते हैं। कल्पना के उस पार जाने का, यथ

पत्तों की बरसात

आँख खुली तो देखा मैंने, रात अजब एक बात हुई थी । अंगड़ाई लेती थी सुबह औंधी गहरी रात हुई थी ॥ पक्षी भी सारे अब चुप थे, घोंसलों में बैठे गुमसुम थे, कैसी ये घटना उनके संग यूँही अकस्मात् हुई थी । आँख खुली तो देखा मैंने, रात अजब एक बात हुई थी ॥ सूरज की अब धूप भी नम थी, तपिश भी उसमें थोड़ी कम थी, स्थिति बनाती और गहन तब तेज़ हवा भी साथ हुई थी । आँख खुली तो देखा मैंने, रात अजब एक बात हुई थी ॥ शर्म छोड़ सब पेड़ थे नंगे, टेढ़े मेढ़े और बेढंगे, झड़प हुई थी उनमें या कि पत्तों की बरसात हुई थी । आ

बिम्ब

रेल गाड़ी के डिब्बों में अब नव संवाद कहाँ खिलते हैं, कभी जो आप से बात हुई तो जाना मित्र कहाँ मिलते हैं। शीशे पर उभरे चित्र जब आप ही आप से बोल पड़ते हैं, अंतः के बेसुध पड़े कोने धीमे-धीमे रस भरते हैं। सोये स्वप्न जब बेड़ी तोड़ें, तभी तो जड़ अपने हिलते हैं, कभी जो आप से बात हुई तो जाना मित्र कहाँ मिलते हैं। #shadow #random #HindiPoetry #Reflections #train #glass

पतझड़

कल्पना करो, कुछ दिनों में ये बंजर हो जायेंगे। ये हवा के संग लहलहाते पत्ते, अतीत में खो जायेंगे॥ जब बारिश की बूंदों में ये पत्ते विलीन होंगे। क्या अश्रु में लिप्त तब ये कुलीन होंगे? विरह की ज्वाला में क्या ये पेड़ भी स्वतः जलेंगे? या नवजीवन की प्रतीक्षा में यूँही अटल रहेंगे? क्या हवा के थपेड़ों में झुक कर, टूट मरेंगे? या चिड़ियों के घोंसलों का फिर ये आशियाँ बनेंगे? शायद, यूँहीं, सभ्यताओं का अंत होता है। या शायद,आरम्भ ही इस अंत के परांत होता है॥ #HindiPoetry #Poems #Reflections #ह

बढ़ चलें हैं कदम फिर से

छोड़ कर वो घर पुराना, ढूंढें न कोई ठिकाना, बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना। ऊंचाई कहाँ हैं जानते, मंज़िल नहीं हैं मानते। डर जो कभी रोके इन्हें उत्साह का कर हैं थामते। कौतुहल की डोर पर जीवन के पथ को है बढ़ाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।। काँधे पर बस्ता हैं डाले, दिल में रिश्तों को है पाले। थक चुके हैं, पक चुके हैं, फिर भी पग-पग हैं संभाले। खुशियों की है खोज कि यात्रा तो बस अब है बहाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।। जो पुरानी सभ्यता है छोड़ कर पीछे

सैंतीस केजी सामान

फोटो सौजन्य: मृणाल शाह छितराई यादों से अब मैं सैंतिस केजी छाँटूं कैसे? सात साल के जीवन को एक बक्से में बाँधूँ कैसे? बाँध भी लूँ मैं नर्म रजाई और तकिये को एक ही संग और लगा कर तह चादर को रख दूँ उनको एक ही ढंग बिस्तर की सिलवट से पर मैं सपनों को छाँटूँ कैसे? सात साल के जीवन को एक बक्से में बाँधूँ कैसे? ढेर किताबों की दे दूँ मैं किसी कनिष्ठ के घर पर भी बेच मैं दूँ पुस्तिकाऐं अपनी व्यर्थ सारी समझ कर भी पर ज्ञान के रस को अब मैं पन्नों से छानूँ कैसे? सात साल के जीवन को एक बक्से में ब

वोट बनाम नोट

चित्र श्रेय: डीएनए इंडिया निर्वाचन का बिगुल बजा, मच रहा था हाहाकार, गली-गली हर घर-घर में, मने उलझन का त्यौहार। “किसे चुनें, किसे सत्ता दें?” हर ओर था यही विवाद, हर भेंट, हर चर्चा का, बस चुनाव ही था संवाद। ऐसे में एक धूर्त नोट ने, लगाई एक वोट से स्पर्धा, “जग में किसकी माँग अधिक? किसकी है अधिक महत्ता?” शास्त्रार्थ का सेज सजा, न्यायाधीश प्रतिष्ठित आये, श्रोताओं में था कौतुहल, “विवाद क्या रंग दिखलाये?” नोट ने बड़ी तैयारी की, व्यवसायी सभी बुलाये, नोट के पक्ष से तर्क सुनाने संग वो अ

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