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The Goddess

Hampi 2020 Like pieces of blocks I assembled her together Gave her the looks I wanted to see. Took her apart. Assembly repeated. Chained her in images. Never let her free. Inner vision And outer mirage Made her the goddess I wanted her to be. #hampi #Inspiration #poetry #incredibleindia #experiences

It lived for a day

He groomed it with wonders of love and spades, It bloomed, it flowered with yellow as shades. It was loved, it flourished It glowed, it was cherished. It passed, it swayed, from hand to hand Flaunting its beauty, with whispers of demand. And now, fractured, it lies, in a corner Spine fragmented and no beauty armour. Ephemeral was fragrance, scattered is softness Breathing the last, aloof and thoughtless It wilted in water, unuttered, astray It bloomed, it flourished, it lived

नाम से पहचान

Graphic courtesy: The Times of India एक रोज़ मुझे एक चिट्टी आयी, ‘सालों से तूने, न शक्ल दिखाई, आकर मिलो इस दफ्तर से तुम, साथ में लाना चंदन कुमकुम।’ पहचान पत्र ले जो मैं पहुंची, अफसर ने देखा, ली एक हिचकी, कहा, ‘नाम तेरा पसंद न आया आज से तू कहलायी माया।’ मैंने फिर आपत्ति जताई, ‘ये कौन सा नियम, मेरे भाई?’ ‘नियम? ये कौन सी है चिड़िया? भावना के बल चले है दुनिया।’ ‘भावना आपकी पर जीवन मेरा, नाम बदलना कठिन है फेरा। बदलना होगा हर दफ्तर में, घिसेंगे जूते इस चक्कर में।’ ‘नाम तो तेरा माया

मारीच की खोज

मैं धरा के जंगलों में ढूंढता मारीच, देखो ! बिछड़े लक्ष्मण और सीता मुझसे किस युग में, न पूछो ! एक उसकी खोज में वर्षों गए हैं बीत मेरे। अब उपासक बन गए हैं उसके ही सब गीत मेरे। मृग बना था स्वर्ण का वह, किसी युग में ज्ञात मुझको। अब तो अनभिज्ञ सा मैं ढूंढता हर पात उसको। मन है उसका बंधक कि मोहन में है जीवन बिताये। किन्तु न अस्तित्व उसका किसी भी क्षण में जान पाए। कौन है वह, क्या है कि वह समक्ष भी है परोक्ष भी है। पाने से उसको ही, अब तो तय हुआ मेरा मोक्ष भी है। वन गगन और पर्वतों पर, ह

शिखरों के पार

हृदय को अकुलाता ये विचार है, दृष्टि को रोके जो ये पहाड़ है, बसता क्या शिखरों के उस पार है। उठती अब तल से चीख पुकार है, करती जो अंतः में चिंघाड़ है, छुपा क्या शिखरों के उस पार है। हृदय को नहीं ये स्वीकार है, क्यों यहाँ बंधा तेरा संसार है , जाने क्या शिखरों के उस पार है। तोड़ो, रोकती जो तुमको दीवार है, भू पर धरोहर का अंबार है, देखो क्या शिखरों के उस पार है।। #Inspiration #hindi #Blog #HindiPoetry #motivation #writings #Reflections #poetry #France #Thoughts #Annecy #Writing

अरण्य का फूल

बेलों लताओं और डालियों पर सजते हैं कितने, रूप रंग सुरभि से शोभित कोमल हैं ये उतने। असंख्य खिलते हैं यहाँ और असंख्य मुरझाते हैं, अज्ञात और अविदित कितने धूल में मिल जाते हैं। दो दिन की ख्याति है कुछ की दो दिन पूजे जाते, फिर कोई न पूछे उन्हें जो वक्ष पर मुरझा जाते। जग रमता उसी को है जो फल का रूप है धरता, अरण्य का वो फूल मूल जो पेट किसी का भरता।। #random #Inspiration #hindi #HindiPoetry #Poems #writings #Reflections #poetry #Thoughts #Writing

कल्पना की दुनिया

यथार्थ की परत के परोक्ष में, कल्पना की ओट के तले, एक अनोखी सी दुनिया प्रेरित, अबाध्य है पले। चेतन बोध से युक्त सृजन के सूत्रधारों की, अनुपम रचनाओं और उनके रचनाकारों की। सृजन फलता है वहाँ विचारों के आधार पर। उत्पत्तियाँ होतीं हैं भावना की ललकार पर। सजीव हो उठती हैं आकृतियाँ ह्रदय को निचोड़ने मात्र से, हर तृष्णा सदृश हो जाती है अंतः के अतल पात्र से। इसके उर में जीते वो जीव रेंगते रेंगते कभी खड़े हो जाते हैं। कभी उद्वेग से भर कर एक आंदोलन छेड़ जाते हैं। कल्पना के उस पार जाने का, यथ

बढ़ चलें हैं कदम फिर से

छोड़ कर वो घर पुराना, ढूंढें न कोई ठिकाना, बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना। ऊंचाई कहाँ हैं जानते, मंज़िल नहीं हैं मानते। डर जो कभी रोके इन्हें उत्साह का कर हैं थामते। कौतुहल की डोर पर जीवन के पथ को है बढ़ाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।। काँधे पर बस्ता हैं डाले, दिल में रिश्तों को है पाले। थक चुके हैं, पक चुके हैं, फिर भी पग-पग हैं संभाले। खुशियों की है खोज कि यात्रा तो बस अब है बहाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।। जो पुरानी सभ्यता है छोड़ कर पीछे

चल, उचक, चंदा पकड़ लें

पक चली उस कल्पना को रंग-यौवन-रूप फिर दें । संकुचित उस सोच के पंखों में फिर से जान भर दें । तर्क के बंधन से उठ कर बचपने का स्वाद चख लें । फिर अधूरा स्वप्न बुन कर चल उचक चंदा पकड़ लें ॥ शंका की सीमा हटा, अद्वितीय कोई काम कर दें । जिंदगी की होड़ से हट कर कोई संग्राम कर दें । फिर से जिज्ञासा-पटल पर साहसी ये पाँव रख दें । फिर अधूरा स्वप्न बुन कर चल उचक चंदा पकड़ लें ॥ #hindipoems #Inspiration #HindiPoetry #motivation #childlike #हिन्दी #कविता

मैं आस की चादर बुनती थी

चित्र श्रेय: गूगल इमेजेस जब चाँद छुपा था बादल में, था लिप्त गगन के आँगन में, मैं रात की चादर को ओढ़े तारों से बातें करती थी । मैं नभ के झिलमिल प्रांगण से सपनों के मोती चुनती थी । मैं आस की चादर बुनती थी ॥ जब सूर्य किरण से रूठा था, प्रकाश का बल भी टूटा था, मैं सूर्य-किरण के क्षमता की गाथायें गाया करती थी । धागों के बाती बना-बना जग का अँधियारा हरती थी । मैं आस की चादर बुनती थी ॥ जब हरियाली मुरझाई थी, शुष्कता उनपर छायी थी, मैं भंगूरित उन मूलों को पानी से सींचा करती थी । पेडों की

कविता की चोरी

शब्दों को कर के लय-बद्ध, लिखे मैंने वो चंद पद्य, मन की इच्छा के भाव थे वो, मेरे अंतर्मन का रिसाव थे वो, वो मेरी कहानी कहते थे, मेरे निकट सदा ही रहते थे, वो प्रेम सुधा बरसाते थे, मेरे दिल को वो बड़ा भाते थे ॥ भाव-विभोरित करता रूप, हर पंक्ति थी करुणा स्वरुप, थे बिम्ब वो मेरी दृष्टि के, मुझे सर्वप्रिय वो सृष्टि में, मेरे सृजन की अनुपम प्रतिमा थे, वो मान की मेरे गरिमा थे, वो मेरी गाथा गाते थे, मेरे दिल को वो बड़ा भाते थे ॥ पर बक्से से एक अवगत वो, रहे दूर सदा ही जगत से वो, निंदा का

स्मारक का गौरव

प्रम्बनन के जीर्ण  (छवि: प्रतीक अग्रवाल) टूटे-फूटे एक स्मारक ने घंटों की मुझसे बात । पिछले वर्षों के भूकंपों ने तोड़े थे उसके हाथ ॥ आया था कभी सौ वर्ष पूर्व एक मध्य रात्रि तूफ़ान । खोया था तब सर स्मारक ने, बच गए पर उसके प्राण ॥ टूटा-फूटा जर-जर था देह, पर बुलंद उसकी आवाज़ । भूली-बिसरी संस्कृति का अब बस यही बचा था ताज ॥ एकाकी रूप, पर सबल स्वरुप, वो कहता रहा कहानी । गौरव से पूर्ण, निष्ठा सम्पूर्ण, वो पिछले युग का था प्राणी ॥ राजा ने कभी वर्षों देकर, थी गढ़ी उसकी हर प्रतिमा । सोचा था

उजाले से आलिंगन

अशांत व्यग्र अतृप्त है मन भावों में कुंठित, लिप्त है मन। तम प्रबल आंधी सा बनकर छीनता मन से है यौवन॥ किन्तु है एक चन्द्र ज्योति नभ के माथे पर सुशोभित। उजाला बन वो तम से लड़ती करती है कण-कण प्रकाशित॥ दीप के लौ सी है उज्जवल सूर्य किरणों में है पलती। जल क्षितिज वायु में बस कर मन के तम को झट ही हरती॥ मन कभी फिर प्रेरणा ले सोचता कि उठ खड़ा हो। इन्द्रियों से अपनी कहता “आज इस तम को हरा दो॥ चन्द्रमा की श्वेत ज्योति कर में आपने आज धर लो। पथ का है जो उजाला बनती आलिंगन उसका आज कर लो”॥ #Hin

उन्मुक्त हूँ मैं

उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ मैं, बेड़ियों के पार हूँ मैं, अवसरों के रास्ते पर खोले अपने द्वार हूँ मैं, खिड़कियाँ जो स्पर्श करती लहरों पे उन सवार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं। अब पवन पर पाँव रख कर छोड़ दी वो ज़मीन मैंने, जकड़े थी जो आत्मा को वर्षों से बंधन में अपने, सरहदों को तोड़ती जो उस ख़ुशी की धार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं। झाँकते जो स्वप्न सारे पंछियों के पर में छुप कर, थाम उनकी उंगलियां मैं चूमती बादल को उड़ कर, पर्वतों क

बंद दफ्तर

ताले में वो बंद दफ्तर उसमे बूढी वो कुर्सियाँ, चुप से कोने में पिरोती कर्कशी खामोशियाँ। कब से हो के मौन बैठे टाइपराइटर वो पुराने, गूंजता था दफ्तर सारा जिनकी खट-खट के बहाने। धूल की मोटी परत अब जिस्म हर ओढ़े हुए है, सालों से वो peon भी तो अपना मुख मोड़े हुए है। जब भी पर्दों की सुराखें किरणों को कभी आने देती, खिड़कियों पर वो भी आके ओस के आंसू बहाती। कागज़ों के ढेर सारे जाने कब से शांत बैठे, मेज़ों के कमज़ोर पाये बोझे से बर्बस हैं टूटे। पीलेपन की ओढ़नी से स्याह भी धुंधला गयी है, दीवारों

ज्वलित बन तू

सूक्ष्म सी चिंगारी बन तू टिमटिमा जुगनू के संग संग। ज्वाला का सामर्थ्य रख तू अपने भीतर, अपने कण-कण॥ नम्रता की लौ भी बन तू जलती-बुझती, कम्पित अंग-अंग। सौम्य ज्योत हर ओर भर तू रात्रि की कालिख में रोशन॥ प्रेरणा की अग्नि बन तू ज्वलित कर धरती का प्रांगन। आज अब कुछ ऐसे जल तू प्रबुद्ध हो हर मन का आँगन॥ #Inspiration #hindi #ndi #motivation #poetry #poem #हिन्दी #कविता

उठ जाग ! ऐ भारतीय !

Photo Courtesy Pratik Agarwal उत्तेजना संदेह से कुंठित हैं मनोभाव मिलती नही इस धूप से अब कहीं भी छाँव। हर अंग पर चिन्हित हुआ है भ्रष्ट का सवाल आता नहीं है मन में कोई अब दूसरा ख्याल॥ नीतियों में है कहीं फंसा वो राष्ट्रवाद विकास को रोके हुए, हर ओर का विवाद। ओढ़े हुए हैं मैली कुचली संस्कृति फटी आत्मदाह में जल रही किसानों की ये मिट्टी॥ धर्म की निरपेक्षता के नारे लगाते हम घर में ही अपने जाति पर लाशें बिछाते हम। उलझे हुए हैं चमडों के रंगों में वर्षों से कहने को तो सब हैं एक पर भिन्न

चल पड़ा सन्यासी वो

चल पड़ा सन्यासी वो, अपनी ही एक राह पर तलवे को नग्न कर और भूत को स्याह कर। बढ़ चला वो अपने पग से मार्ग को तराशता आज बस उम्मीदें ही बन रही उसका रास्ता॥ जरुरत का सामान कुछ, काँधे पे अपने डाल कर लक्ष्य की चाहत में है, स्वयं को संभाल कर। चल रहे हैं कदम उसके कंकडों को चूमते कीचड से लथपथ हैं पूरे, अपने धुन में झूमते॥ राहें अब उसकी बनी हैं, वो एक पथिक है बस सराहती उद्यम है उसका धुंध भी बरस-बरस। घास में नरमी है छाई मिट्टी गर्मी दे रही वादियाँ भी उसके इस आहट से प्रेरित हो रही॥ अर्पित

ऊंची नाक वाले अंकल

कल शाम मिले मुझे एक अंकल बहुत ही ऊंची नाक थी उनकी। कपडे थोड़े फटे हुए थे तनी हुई पर शाख थी उनकी॥ जब जहां जब भी वो जाते पहले उनकी नाक पहुँचती। सबसे जग में यही बताते सबसे ऊंची नाक है उनकी॥ कभी जो दिल उनका कुछ चाहे पहले वो अपनी नाक से मापें। नाक की कद से जो ऊंचा हो उसे ही अपने योग्य वो समझे॥ देखते वो पहचान में आये किया ‘नमस्ते’ सर को झुकाए। असमंजस में लगे ज़रा वो ध्यान कहीं और कहीं को जायें॥ टकटकी लगाये देखते थे वो वहाँ झूलते हुए झूलों को। तोड़ रहे थे साथ-साथ वो पूजा के लिए फूलों क

मनोव्यथा

क्यूं सूर्य की धूप अब घटती नहीं है? क्यूं नियति से बदलियाँ छटती नहीं हैं? हर दिशा झुलसी है अग्नि के प्रलय से क्यूं धरा पर कोपलें खिलती नहीं हैं? जब भी बढ़ के छूना चाहूँ मैं हवा को हाथ एक कालिख में रंग के लौट आते, जब भी कर में बूंदों को मैं भरना चाहूँ विष के प्याले उँगलियों पर छलक जाते। प्यासे होठों पर कलि खिलती नहीं हैं क्यूं सूर्य की धूप अब घटती नहीं है? ना कहीं मुस्कान है ना आस दिखती हर तरफ आंधी की गहरी श्वास चलती, प्रकृति के रस को पल-पल हम निगलते हर घूँट में आंसुओं की धार ब

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