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Mirage

I think you still exist Or, do you, actually, not? As image you persist Reality says, you do not. You build me, every night, Story of colorful dream Daylight fades the colors Shredded bits scream In receding light of day, I weave from those shreds Fabricate a picture of you With the broken threads It comes alive at times Speaks to me at lengths Colors my dreams again Glues my weakening strengths Your image is my reality As real as it can be You dwell in my present And say, y

दीवारें

माना कि थे वो ग़लत और क्रूर अपरम्पार थे । दोषों से वो युक्त थे और पाप के भरमार थे ।। किन्तु दीवारें बना, क्या हमने हत्याएं न कीं? जो हमारे कर हुई, वो न्याय कैसे कब हुईं? क्या दीवारें बनने से आयी कभी कहीं शांति है? भूत के पन्ने पलट लो, इनसे हुई बस क्रांति है! #HindiPoetry #BerlinWall #Poems #FallofBerlinWall #Randomthoughts #Thoughts #Berlin #Germany #Writing

It lived for a day

He groomed it with wonders of love and spades, It bloomed, it flowered with yellow as shades. It was loved, it flourished It glowed, it was cherished. It passed, it swayed, from hand to hand Flaunting its beauty, with whispers of demand. And now, fractured, it lies, in a corner Spine fragmented and no beauty armour. Ephemeral was fragrance, scattered is softness Breathing the last, aloof and thoughtless It wilted in water, unuttered, astray It bloomed, it flourished, it lived

मारीच की खोज

मैं धरा के जंगलों में ढूंढता मारीच, देखो ! बिछड़े लक्ष्मण और सीता मुझसे किस युग में, न पूछो ! एक उसकी खोज में वर्षों गए हैं बीत मेरे। अब उपासक बन गए हैं उसके ही सब गीत मेरे। मृग बना था स्वर्ण का वह, किसी युग में ज्ञात मुझको। अब तो अनभिज्ञ सा मैं ढूंढता हर पात उसको। मन है उसका बंधक कि मोहन में है जीवन बिताये। किन्तु न अस्तित्व उसका किसी भी क्षण में जान पाए। कौन है वह, क्या है कि वह समक्ष भी है परोक्ष भी है। पाने से उसको ही, अब तो तय हुआ मेरा मोक्ष भी है। वन गगन और पर्वतों पर, ह

शब्दों का हठ

कहते हैं मुझसे कि एक बच्चे की है स्वप्न से बनना, जो पक्षियों के पैरों में छुपकर घोंसले बना लेते हैं। कहते हैं मुझसे कि एक थिरकती लौ की आस सा बनना, जो उजड़ती साँसों को भी हौसला देकर जगा देते हैं। कविताओं के छंद बना जब पतंग सा मैंने उड़ाना चाहा, तो इनमें से कुछ आप ही बिखर गए धागे से खुलकर। पद्य के रस में पीस कर जब इत्र से मैंने फैलाना चाहा, तो इनमें से कुछ स्वयं ही लुप्त हुए बादल में घुलकर। अब उन्हें न ही किसी श्लोक न किसी आयत में बंद होना है, अब उन्हें अपनी उपयुक्तता की परिभाषा

अरण्य का फूल

बेलों लताओं और डालियों पर सजते हैं कितने, रूप रंग सुरभि से शोभित कोमल हैं ये उतने। असंख्य खिलते हैं यहाँ और असंख्य मुरझाते हैं, अज्ञात और अविदित कितने धूल में मिल जाते हैं। दो दिन की ख्याति है कुछ की दो दिन पूजे जाते, फिर कोई न पूछे उन्हें जो वक्ष पर मुरझा जाते। जग रमता उसी को है जो फल का रूप है धरता, अरण्य का वो फूल मूल जो पेट किसी का भरता।। #random #Inspiration #hindi #HindiPoetry #Poems #writings #Reflections #poetry #Thoughts #Writing

काव्य नहीं बंधते

शब्द तो गट्ठर में कितने बांध रखे हैं, स्याही में घुल कलम से वो अब नहीं बहते। हो तरंगित कागज़ों को वो नहीं रंगते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।। बीज तो माटी में निज विलीन होते हैं, किन्तु उनसे लय के अब अंकुर नहीं खिलते। मनस की बेलों पर नव सुमन नहीं सजते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।। मैं पुराने ऊन को फिर उधेड़ बिनती हूँ, पर हठी ये गाँठ हाथों से नहीं खुलते। उलझ खुद में वो नए ढांचे नहीं ढलते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।। अंतः में अटखेलियाँ तो भा

पतझड़

कल्पना करो, कुछ दिनों में ये बंजर हो जायेंगे। ये हवा के संग लहलहाते पत्ते, अतीत में खो जायेंगे॥ जब बारिश की बूंदों में ये पत्ते विलीन होंगे। क्या अश्रु में लिप्त तब ये कुलीन होंगे? विरह की ज्वाला में क्या ये पेड़ भी स्वतः जलेंगे? या नवजीवन की प्रतीक्षा में यूँही अटल रहेंगे? क्या हवा के थपेड़ों में झुक कर, टूट मरेंगे? या चिड़ियों के घोंसलों का फिर ये आशियाँ बनेंगे? शायद, यूँहीं, सभ्यताओं का अंत होता है। या शायद,आरम्भ ही इस अंत के परांत होता है॥ #HindiPoetry #Poems #Reflections #ह

बढ़ चलें हैं कदम फिर से

छोड़ कर वो घर पुराना, ढूंढें न कोई ठिकाना, बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना। ऊंचाई कहाँ हैं जानते, मंज़िल नहीं हैं मानते। डर जो कभी रोके इन्हें उत्साह का कर हैं थामते। कौतुहल की डोर पर जीवन के पथ को है बढ़ाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।। काँधे पर बस्ता हैं डाले, दिल में रिश्तों को है पाले। थक चुके हैं, पक चुके हैं, फिर भी पग-पग हैं संभाले। खुशियों की है खोज कि यात्रा तो बस अब है बहाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।। जो पुरानी सभ्यता है छोड़ कर पीछे

कविता की चोरी

शब्दों को कर के लय-बद्ध, लिखे मैंने वो चंद पद्य, मन की इच्छा के भाव थे वो, मेरे अंतर्मन का रिसाव थे वो, वो मेरी कहानी कहते थे, मेरे निकट सदा ही रहते थे, वो प्रेम सुधा बरसाते थे, मेरे दिल को वो बड़ा भाते थे ॥ भाव-विभोरित करता रूप, हर पंक्ति थी करुणा स्वरुप, थे बिम्ब वो मेरी दृष्टि के, मुझे सर्वप्रिय वो सृष्टि में, मेरे सृजन की अनुपम प्रतिमा थे, वो मान की मेरे गरिमा थे, वो मेरी गाथा गाते थे, मेरे दिल को वो बड़ा भाते थे ॥ पर बक्से से एक अवगत वो, रहे दूर सदा ही जगत से वो, निंदा का

मेरा कमरा

समतल भाव, उजला है चेहरा, रसोई-लगा मेरा वो कमरा। खिड़की के बाहर को झांकता, बारिश की लय पर है बरसता, सूरज की लौ को है तरसता, हवा-थपेड़ों संग वो हँसता, सुनता, बूझता, मूक, न बहरा, रसोई-लगा मेरा वो कमरा॥ उज्जवल हो मुझे गोद भरे वो, सुन कर बस मेरे कष्ट हरे वो, आँखें मूँद फिर नींद जड़े वो, सपनों को बिस्तर पे धरे वो, गहरी नींद पर द्वार दे पहरा, रसोई-लगा मेरा वो कमरा॥ रंगो-तस्वीरों से सज्जित, घड़ी की टिक-टिक सा वो जीवित, मेरी बेसुरी धुनों से पीड़ित, फिर भी मेरे सुख में हर्षित, समझे मेरा भाव

उन्मुक्त हूँ मैं

उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ मैं, बेड़ियों के पार हूँ मैं, अवसरों के रास्ते पर खोले अपने द्वार हूँ मैं, खिड़कियाँ जो स्पर्श करती लहरों पे उन सवार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं। अब पवन पर पाँव रख कर छोड़ दी वो ज़मीन मैंने, जकड़े थी जो आत्मा को वर्षों से बंधन में अपने, सरहदों को तोड़ती जो उस ख़ुशी की धार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं। झाँकते जो स्वप्न सारे पंछियों के पर में छुप कर, थाम उनकी उंगलियां मैं चूमती बादल को उड़ कर, पर्वतों क

बंद दफ्तर

ताले में वो बंद दफ्तर उसमे बूढी वो कुर्सियाँ, चुप से कोने में पिरोती कर्कशी खामोशियाँ। कब से हो के मौन बैठे टाइपराइटर वो पुराने, गूंजता था दफ्तर सारा जिनकी खट-खट के बहाने। धूल की मोटी परत अब जिस्म हर ओढ़े हुए है, सालों से वो peon भी तो अपना मुख मोड़े हुए है। जब भी पर्दों की सुराखें किरणों को कभी आने देती, खिड़कियों पर वो भी आके ओस के आंसू बहाती। कागज़ों के ढेर सारे जाने कब से शांत बैठे, मेज़ों के कमज़ोर पाये बोझे से बर्बस हैं टूटे। पीलेपन की ओढ़नी से स्याह भी धुंधला गयी है, दीवारों

हे प्रिय!

हे प्रिय! पकड़ लो हाथ कभी मैं भी दो क्षण फिर साथ चलूँ। जो स्वप्न मौन में आहट दें उनका नयनों से स्पर्श करूँ॥ हे प्रिय! राग बन मिलो कभी तेरी ताल पे मैं नित नृत्य करूँ। जो स्वर वर्षों से अधूरे हैं कर पूर्ण उन्हें, नए गीत लिखूं॥ हे प्रिय! रंग सा बिखरो कभी मैं इंद्रधनुष नभ में गढ़ दूँ। तारों की झिलमिल चमक चुरा हर रात्रि मैं मोदित कर दूँ॥ हे प्रिय! शब्द बन बहो कभी मैं स्मृतियों को नयी भाषा दूँ। तेरे मृदुल संग के शीत तले कभी मैं फिसलूँ, तो कभी सम्भलूँ॥ हे प्रिय! कभी रुक, मेरा नाम तो ल

ऊंची नाक वाले अंकल

कल शाम मिले मुझे एक अंकल बहुत ही ऊंची नाक थी उनकी। कपडे थोड़े फटे हुए थे तनी हुई पर शाख थी उनकी॥ जब जहां जब भी वो जाते पहले उनकी नाक पहुँचती। सबसे जग में यही बताते सबसे ऊंची नाक है उनकी॥ कभी जो दिल उनका कुछ चाहे पहले वो अपनी नाक से मापें। नाक की कद से जो ऊंचा हो उसे ही अपने योग्य वो समझे॥ देखते वो पहचान में आये किया ‘नमस्ते’ सर को झुकाए। असमंजस में लगे ज़रा वो ध्यान कहीं और कहीं को जायें॥ टकटकी लगाये देखते थे वो वहाँ झूलते हुए झूलों को। तोड़ रहे थे साथ-साथ वो पूजा के लिए फूलों क

मनोव्यथा

क्यूं सूर्य की धूप अब घटती नहीं है? क्यूं नियति से बदलियाँ छटती नहीं हैं? हर दिशा झुलसी है अग्नि के प्रलय से क्यूं धरा पर कोपलें खिलती नहीं हैं? जब भी बढ़ के छूना चाहूँ मैं हवा को हाथ एक कालिख में रंग के लौट आते, जब भी कर में बूंदों को मैं भरना चाहूँ विष के प्याले उँगलियों पर छलक जाते। प्यासे होठों पर कलि खिलती नहीं हैं क्यूं सूर्य की धूप अब घटती नहीं है? ना कहीं मुस्कान है ना आस दिखती हर तरफ आंधी की गहरी श्वास चलती, प्रकृति के रस को पल-पल हम निगलते हर घूँट में आंसुओं की धार ब

आत्म-मंथन

द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊँ मैं। सब कहते हैं वो अपने हैं किसके संग हो जाऊं मैं? हर राह लगती है सूनी हर पथिक लगता है भटका, पूछूं किससे राह मैं अपनी सपना जो पूरा हो मन का। सही-गलत के जटिल प्रश्न में उलझा बैठा है मेरा मन, किस राह को मैं अपनाकर कर दूं उसे ये जीवन अर्पण। आज नहीं कर पाती निश्चय किस पथ पर बढ़ जाऊं मैं? द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊं मैं॥ हर श्वास कहती है मुझसे समय भी मेरे पास नहीं है, दुविधा बड़ी है और लगता है भाग्य भी अपने साथ नहीं है।

तुम्हारा लैबकोट

तुम्हारा लैबकोट मिला एक दिन तुम्हारी कुर्सी पर लटका हुआ खोया- खोया मायूस सा, चेहरा बिलकुल उतरा हुआ। किसी ने सुबह से उसका हाल ना पूछा था किसी ने उसकी तरफ मुड़ के भी तो ना देखा था। डूबा हुआ था वो तुम्हारी छितराई यादों में ‘क्यूँ छोड़ गया मुझे वो?’ यही सवाल था उसकी फरियादों में। जब मैंने उसके कंधे पर से जमी धुल हटाई उसकी उदास आँखें आंसुओं से भर आयीं। डबडबाई आँखों से फिर उसने मेरी ओर देखा झुकी हुई पलकों पर खिंची था आशा की एक रेखा। ‘देखा है कई बार मैंने तुम्हे यहाँ आते-जाते कहाँ

वो खोया बचपन

वो खोया बचपन दिख जाता है कभी उन नन्हें क़दमों में जो स्कूल जाने से हिचकिचाते हैं। वो खोया बचपन दिख जाता हैं कभी दीवारों पर खिंची आड़ी -तिरछी लकीरों में जो नन्हें-कोमल हाथ अपने पीछे छोड़ जाते हैं। वो खोया बचपन दिख जाता है कभी हंसी के उन फुहारों में जो अनायास ही गूँज उठते हैं। वो खोया बचपन दिख जाता है कभी टूटे पेड़ के उन सूखी टहनियों में जो झूले बनने को स्वयं ही झुक जाते हैं। वो खोया बचपन दिख जाता है कभी कागज़ के उन छोटे-छोटे नावों में जो बारिश के पानी में तैरते नज़र आते हैं। वो खोया

मेरा छोटा सा घर

मेरे गाँव के तालाब से सटे, जहां छोटी पगडण्डी जाती है, वहां, पेड़ों के झुर्मुठ के तले, एक है मेरा छोटा सा। एक बगिया है, जहां फूल खिले कुछ नीले, पीले और हरे उनकी भीनी खुशबू के तले, एक घर है मेरा छोटा सा। एक तालाब है, कमलों से घिरा, छोटी छोटी मीनों से भरा, तालाब के उस पार खड़ा बड़गद का है एक पेड़ बड़ा, इस पार की दरिया से सटे, एक घर है मेरा छोटा सा। सुबह सूरज की किरणें जब मेरे द्वार से टकराती हैं मुझे गुदगुदा कर जाती हैं उन किरणों के उजाले तले एक घर है मेरा छोटा सा। हर शाम आती हैं तित

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