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ईर्ष्या या प्रेम

Updated: Mar 29, 2021

मैं कथा कहूँ दो प्रेमियों की जो सदा संग ही विचरते थे । पर एक-दूजे से बिना मिले निर्बल से, आहें भरते थे ॥


एक शाम अनोखी की बात हुई ईर्ष्या से प्रेमिका हताश हुई । सूची शिकायतों की खोली प्रेमी से अथाह निराश हुई ॥


मायोसिन: ‘तू कहता तुझे मैं हूँ पसंद फिर क्यूँ सबसे आकर्षित तू? तू अर्थ इस मैत्री का अब बता है किस मिट्टी से निर्मित तू?’


एक्टिन: ‘आकर्षण? आखिर वो क्या है? मेरे भाव तो सारे सम्मुख हैं । हे प्रिय! तू मेरी बात समझ मैं तेरी ओर ही उन्मुख हूँ ॥


क्यों भूमिका मेरी न समझे तू? मैं तो बस एक संबंधक हूँ । लक्ष्य तो मेरा उर्जा-जनन बस पात्र रूपी मैं दर्शक हूँ ॥


तुझसे ही पाकर शक्ति मैं दूजों तक हाथ बढ़ाता हूँ । फिर जोड़ के सारे कण-कण मैं कोशिका का रूप बनाता हूँ ॥


कोशिकांगों को स्थिरता मिलती है मेरे यूँ हाथ पकड़ने से । फिर क्यूँ उलाहना करती हो तुम झूठ-मूठ आकर्षण के ?’


मायोसिन: ‘हर चाल मैं तेरी समझती हूँ ये कहानियाँ मुझे तू न ही सुना ! सम्बन्धन के विचित्र आड़ में तू करता पूरा अपना सपना॥’


एक्टिन: ‘सपना मेरा तो तुम ही हो इस बात को क्यों न समझती हो? मैं सदा रहा हूँ साथ तेरे फिर भी ये प्रश्न तुम करती हो !


कोशिकाओं का मैं ढाँचा हूँ इस बात से हो न अवगत तुम? कण-कण को जोड़ के ढाँचा बने फिर क्यों मुझसे हो क्रोधित तुम?


संगठन का ही तो कार्य मेरा मैं जोड़ू नहीं तो क्या मैं करूँ? प्रयोजन जो मेरा कोशिका में बिन हाथ धरे कैसे पूर्ण करूँ?’


मायोसिन: ‘समझती हूँ प्रयोजन मैं तेरा पर द्वेष मैं कैसे दूर करूँ? ये प्रेम जो तेरा समानांतर है उसे छल नहीं तो क्या समझूँ?’


एक्टिन: ‘हे प्रिय समझो मेरी दुविधा को ये छल नहीं, ये धर्म मेरा । संभाल के सबको रखना ही है प्रथम लक्ष्य और कर्म मेरा ॥


मैं करूँ कुछ भी, जाऊँ मैं कहीं न छोड़ूं तेरा मैं हाथ कभी । कोशिका-कोशिका या कोशिका-धरा हर मिलन में तू ही साथ रही ॥


जब ऊर्जा मुझको पानी थी तू ही तो संग मेरे खड़ी रही । पूरक हैं हम एक दूजे के तुझ बिन मुझ में शक्ति ही नहीं ॥


समझता हूँ मैं तेरी ईर्ष्या को तेरे प्रेम का भी अाभास करूँ । इसलिए तो तेरे संग ही मैं कोशिका का रूप विन्यास करूँ?


अब उठो हे प्रिय! न रूठो तुम कि व्यर्थ ये सारा क्रन्दन है । कोशिकाओं की क्षमताओं का आधार हमारा बंधन है ॥


मायोसिन: तुम ठीक ही कहते हो हे प्रिय! कि असीम प्रेम हम में लय है । फिर भी न जाने क्युँ मुझमें इसकी असुरक्षा का भय है ॥


एक्टिन: वो प्रेम कहाँ भला प्रेम हुआ जिसमे ईर्ष्या न व्याप्त हुई । तनाव प्रेम का जहाँ रुका समझो, अवधि भी समाप्त हुई ॥


निराश न हो हे प्रिय तुम यूँ ईर्ष्या से ऊर्जा निर्मित होगी । फिर ऊर्जा के हर कण-कण से कोशिका अपनी विकसित होगी ॥


कि प्रेम ये अपना ऐसा है जो विकास का मूल आधार बने । कि इसी प्रेम की दीवारों से संगठित कोशिका का संसार सजे ॥


सन्दर्भ – यह कविता मैंने अपने शोध के नए विषय से प्रभावित होकर लिखी है। कोशिकाओं में कई प्रोटीन्स होते हैं जो कोशिका का ढाँचा (skeleton) बनते हैं। उनमें से दो प्रोटीन्स हैं: एक्टिन और मायोसिन। कोशिका में एक्टिन के फिलामेंट्स होते हैं जो मायोसिन के हेड से जुड़ते हैं । ATP की सहायता से मायोसिन का हेड एक निर्धारित दिशा में घूमता है और एक्टिन का फिलामेंट उसके साथ विस्थापित होता है। इस विस्थापन के से कोशिका से सिकुड़ती या फैलती है। कोशिका की कई प्रक्रियाएँ इसी घटना से नियंत्रित हैं। इन दोनों प्रोटीन्स का मानवीकरण कर के मैंने यह काव्य लिखा है। यहाँ एक्टिन और मायोसिन को मैंने प्रेमियों के रूप में प्रस्तुत किया है। चूँकि प्रक्रियाओं के को पूर्ण करने के लिए एक्टिन(प्रेमी) कई दूसरे प्रोटीन्स से जुड़ता है, मायोसिन (प्रेमिका) एक दिन उससे नाराज़ हो जाती है। इसी ईर्ष्या में मायोसिन एक्टिन को शिकायत करती है कि वो ऐसा क्यों करता है। और एक्टिन इस व्यवहार को स्पष्ट करता है। ये कविता इन दोनों के इसी संवाद पर आधारित है।

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