हरी-हरी ज़मीन से ऊँची शाख ने कहा, “मैं तना विशाल-सा, शान से यहाँ अड़ा, तुच्छ, तू ज़मीन पर, धूलग्रस्त है गड़ा, क्या महान कर रहा, तू वहाँ पड़ा-पड़ा?
हूँ उगा मैं मिट्टी से, फिर भी नभ को चूमता, वर्षा की झंकार सुन, मदमस्त हो के झूमता, वन के पृष्ठ पर हरे रत्न-सा मैं हूँ जड़ा, क्या महान कर रहा तू वहाँ पड़ा-पड़ा?
पक्षियों के नीड़ को थाम अपनी बांह में, कर रहा मैं तृप्त सबको, जो भी आये छाँह में, हर लता मुझसे लिपट, लगती जैसे अप्सरा, क्या महान कर रहा तू वहाँ पड़ा-पड़ा?
मैं तरु प्रशस्त हूँ, स्वच्छ हवा प्रवाह दूं, मृत्यु के उपरांत भी, टहनियाँ मनचाह दूं, सामर्थ्य मुझमें ही है इतना, मैं रहूँ यहाँ अड़ा क्या महान कर रहा तू वहाँ पड़ा-पड़ा?”
“वृक्ष, है महान तू! है इस धरा की जान तू, हर जीव को कुछ-न-कुछ, कर रहा प्रदान तू, दान है जब अंश-अंश, तो क्यों अहम् इतना भरा? क्यों उसे ही श्रेय दे तू, जिसका है ढांचा बड़ा?
मानूँ नहीं महान मैं, न इस धरा शान मैं, सत्य तेरे वचन सभी, भू आवरण सामान मैं, कर रहा न कर्म कोई मैं यहाँ बड़ा-बड़ा, नर्म करूँ बस छाँव तेरी मैं यहाँ पड़ा-पड़ा।
कंकड़ों को तोड़ कर मिट्टी मैं देता बना, जिसके रस पे सींच कर, फलता है तेरा तना, बनता हूँ मैं खाद तेरी, अपना तन सड़ा-सड़ा, मैं यही करता रहा हूँ, वर्षों से पड़ा-पड़ा।”
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