है जंग यहाँ फिर आज छिड़ी है रण भूमि फिर आज सजी अर्जुन ने अपना धनुष कसा तरकश को फिर बाणों से भरा इस बार भी भाई समक्ष खड़े अर्जुन के बाण प्रत्यक्ष अड़े अस्थिर मन फिर से सवाल करे “अरे हाय! कृष्ण तुम कहाँ गए?”
अर्जुन का पराक्रम है प्रबल बाणों का शौर्य हुआ न कम ‘पर भाई से कैसे करें ये रण?’ व्यग्र-अशांत है अब भी मन ‘मन को वश में अब कैसे करें? कर्म पर ही चित कैसे धरें?’ नैतिकता विचार विमूढ़ किये अरे हाय! कृष्ण तुम कहाँ गए?
व्याकुल अर्जुन, आह्वान किये हर चर-अचर से एक मांग किये “अरे ढूंढो कृष्ण को वन-वन में, ज़रा पूछो जा के जन-जन से जाने कटुता किस रूप फले है छिड़ा द्वंद्व कैसे सुलझे? अब धर्म को स्थायी कौन करे? अरे हाय! कृष्ण तुम कहाँ गए?”
सहसा, छटा बादलों का सेज फूटी वाणी, सौम्य पर तेज़ “अरे ओ! जो भू पर विचरता है किस कृष्ण कि बातें करता है? किसे पाने को तू लालायित? तुझे देख हुए सभी जीव चकित क्यों बार बार ये कहता फिरे कि हाय! कृष्ण तुम कहाँ गए?
वो कृष्ण जो पालनकर्त्ता है, वो कृष्ण जो दुखों को हरता है, जिसने धरती का सृजन किया, जिसमें ही सबका अंत हुआ, वो चहुँओर है व्याप्त तेरे वो कृष्ण तो जन-जन में है बसे फिर क्यों हर दिशा तू उसे ढूंढे कि हाय! कृष्ण तुम कहाँ गए?”
“अरे! पुनः वही बेला आयी कुरुक्षेत्र में हैं खड़े भाई परिजन को लक्ष्य धरूँ कैसे गुरु पर मैं प्रहार करूँ कैसे महाभारत भी, अर्जुन भी वही पर आया हरि का सन्देश नहीं बिन सारथि रथ ये चले कैसे अरे हाय! कृष्ण तुम कहाँ गए?”
“तेरे असि से है क्षतिग्रस्त धरा तू अब भी कृष्ण को ढूंढ रहा? तेरे क्रोध से है अब तक क्या हुआ? धरती का अंग ही सदा कटा रण की न तूने क्या समझी व्यथा क्या करेगी मृत पांडवों का पृथा द्वापर का अंत क्यों भूल रहे? क्यों हाय! कृष्ण को ढूंढ रहे?
वो है हर अणु में आच्छादित तू क्यों करता उसको खंडित? विश्वास न हो तो साध तू बाण तू लेगा अपने ही कृष्ण के प्राण जो जीत गया इस रण को भी न तर पायेगा ग्लानि कभी फिर कहता फिरेगा लोकों में अरे हाय! कृष्ण तो चले गए।
है कलियुग ये, द्वापर ये नहीं एक शर अब कृष्ण-अवतार नहीं नेतृत्व तू ले और निर्णय कर क्या रण हो किसी मतभेद का हल? तू कर विरोध इस जंग का आज अरे! छोड़ दे अब ये लोभ, ये ताज जिसे ढूँढता है, उसे पा खुद में अरे हाय! कृष्ण हर मन में बसे।
लिख दे स्वयं तू गीता इस बार परिभाषित कर जीवन का सार स्वाधिपत्य का तू अनुयायी बन कि देख तुझे सीखे जन-जन नैतिकता का अनुसरण तू कर अब स्वयं तू रथ की डोर पकड़ जीवन अपना तू स्वयं रच दे अरे हाय! कृष्ण कण-कण में मिले।”
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