top of page
Surabhi Sonam

स्वयं को परमार्थ कर

Updated: Mar 29, 2021


Moon-Background-Wallpaper

रात, बादल से निकल कर, चाँद ने टोका मुझे, “है क्यों इतना तू परेशां, कैसी है चिंता तुझे? क्यों तू एकाकीपने की ओट में लेटा रहे? क्यों तू अपनी वास्तविकता से पलट सोता रहे?


क्यों विरह की बेला तुझको यूँ लगे विकराल है? जब तेरे समक्ष उज्जवल तेरा विश्व विशाल है, क्यों ज़रा सी चोट भी कर देती है विह्वल तुझे? क्यों भला अपनी ही रूह और अक्स से है डर तुझे?


क्यों नहीं आता भला तू अपनी रूह के रु-ब-रु? क्यों नहीं बढ़ कर कभी उस अक्स को लेता तू छू?

मैत्री कर ले रूह से और अक्स को अपना समझ, फिर तू देख गुत्थियां हर कैसे न जाती हैं सुलझ।


विश्व बन कर रूह तेरा जूझती तुझमें कहीं, क्यों बने तू आत्म प्रेमी उसको करता अनसुनी? ज्योंही तू उसके स्वरों को अपने अंतस बसाएगा, तब ही तू भ्रम-आवरण के पार दृष्टि पायेगा।


ज्ञान कि संजीवनी, जीवन का रथ जो खींचती, बन के वो ही अक्स तेरा तेरे जड़ को सींचती। बन कभी तू बिम्ब उसका थाम ले आँचल ज़रा, उड़ तू उसके संग संग और प्राप्त कर अम्बर तेरा।


रूह और अक्स की सुधा को खुद में आत्मसात कर, तोड़ दे बंधन तू सारे इस धरा को साथ कर। है जनन कि शक्ति तुझमें कृत्य को तू कृतार्थ कर, उठ कभी तू अपने भू से स्वयं को परमार्थ कर॥”


(प्रेरणा स्रोत: रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता “चाँद और कवि”)

0 views0 comments

Comentarios


Post: Blog2_Post
bottom of page