
प्रम्बनन के जीर्ण (छवि: प्रतीक अग्रवाल)
टूटे-फूटे एक स्मारक ने घंटों की मुझसे बात ।
पिछले वर्षों के भूकंपों ने तोड़े थे उसके हाथ ॥
आया था कभी सौ वर्ष पूर्व एक मध्य रात्रि तूफ़ान ।
खोया था तब सर स्मारक ने, बच गए पर उसके प्राण ॥
टूटा-फूटा जर-जर था देह, पर बुलंद उसकी आवाज़ ।
भूली-बिसरी संस्कृति का अब बस यही बचा था ताज ॥
एकाकी रूप, पर सबल स्वरुप, वो कहता रहा कहानी ।
गौरव से पूर्ण, निष्ठा सम्पूर्ण, वो पिछले युग का था प्राणी ॥
राजा ने कभी वर्षों देकर, थी गढ़ी उसकी हर प्रतिमा ।
सोचा था कि वो सुनाएगा मीलों उस राज्य की महिमा ॥
वास्तु का अद्भुत रूप था वो, थी शिल्पकला भी अनुपम ।
वो सबल कृति, दर्शाता था समृद्धि मेधा का संगम ॥
वर्षों तक उसका प्रताप रहा, पर अंत हुआ एक शाम ।
जब राजा अपनी सेना संग हारा एक प्रमुख संग्राम ॥
लूटा स्मारक को जन-जन ने, तोड़ा था उसका प्रांगण ।
लूटा था उसका रंग रूप, किया तहस-नहस वो उपवन ॥
था छिद्र-छिद्र वो स्मारक, पर कण-कण था छलकता तेज ।
ताने सीना वो डटा रहा, क्या हुआ जो लुट गयी सेज ॥
प्रकृति ने भी फिर रूप बदल, चले अनेक ही चाल ।
हो गया था सारा अंग भंग, पर महिमा रही विशाल ॥
वो प्रौढ़ रूप, वैभव का दूत, बना संस्कृति की पहचान ।
अब गौण राज्य, बदला समाज, पर डटा रहा वो महान॥
स्मारक ने फिर कहा मुझसे कि मर जाते हैं प्राणी ।
पर हम जैसे सृजन उनके दोहराएं उनकी कहानी ॥
महिमा गाने को हुआ जन्म, है जीवन का यही अर्थ ।
जो कृति अहम में डूब गयी, हुआ उसका जीवन व्यर्थ ॥
गौरव के पथ पर चला नहीं, न कृत्य हुआ वो कृतार्थ ।
जो जन्म मरण से अबाध्य खड़ा, है बना वही परमार्थ ॥
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