वो खोया बचपन दिख जाता है कभी उन नन्हें क़दमों में जो स्कूल जाने से हिचकिचाते हैं।
वो खोया बचपन दिख जाता हैं कभी दीवारों पर खिंची आड़ी -तिरछी लकीरों में जो नन्हें-कोमल हाथ अपने पीछे छोड़ जाते हैं।
वो खोया बचपन दिख जाता है कभी हंसी के उन फुहारों में जो अनायास ही गूँज उठते हैं।
वो खोया बचपन दिख जाता है कभी टूटे पेड़ के उन सूखी टहनियों में जो झूले बनने को स्वयं ही झुक जाते हैं।
वो खोया बचपन दिख जाता है कभी कागज़ के उन छोटे-छोटे नावों में जो बारिश के पानी में तैरते नज़र आते हैं।
वो खोया बचपन दिख जाता है कभी अपने ही अन्दर, सहमा, संकुचाया हुआ सा जिसकी मासूमियत को हम सालों से भूलाये बैठे हैं॥
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