top of page

ये लहरें किधर हैं जाती?

Updated: Mar 29, 2021


IMG_6565-1

डूब रहा है सूरज और गोधूलि हुई है बेला, बादल के सिरहाने पर किरणों का लगा है मेला ।


ऐसे में ये चंचल लहरें छोड़ के अपने घर को, बेसुध हो, बेसब्र वो सारी, जाने चली किधर को !


नील से गहराता है गगन और चन्द्र का चढ़ता यौवन, श्वेत रश्मि से प्रज्ज्वल है तारों से सज्ज ये उपवन।


शीतलता की छाँव में भी वो बांधे हुए हैं कर को, बेसुध हो, बेसब्र वो सारी, जाने चली किधर को !


समा के सारे नील गगन को अपने उर के अंदर, क्षितिज से भेंट हुई तो समझें खुद को सभी सिकंदर !


वक्त नहीं कि रुके किनारे साराह सकें वो नभ को, बेसुध हो, बेसब्र वो सारी, जाने चली किधर को !


बहती जातीं अपने वेग में डगर हो चाहे जैसी, रूप की सुध से वंचित रहती दौड़ ये इनकी कैसी !


जाने क्या पाने को आतुर तोड़ती अपना जड़ वो, बेसुध हो, बेसब्र वो सारी, जाने चली किधर को !


रुकें ज़रा तो मैं भी पूछूं कैसा ये जीवन है! छोड़ के अद्भुत दुनिया सारी राह चुनी क्यूँ विषम है ?


अंत कहाँ इस दौड़ का, बोलो, व्याकुल तुम हो जिधर हो, बेसुध हो, बेसब्र ओ सारी ! जाने चली किधर को !


प्यास कौन से खींचे तुमको? भागती किसके पीछे? चल दी एक दूजे के पीछे क्यूँ भला आँखें मींचे?


निगल रही सबको जलधि है जैसे कोई भंवर हो, बेसुध हो, बेसब्र ओ सारी ! जाने चले किधर को !


वर्तमान अज्ञात बना, है किस भविष्य की आस? क्षण भर का अस्तित्व यहाँ है क्षण भर का है वास।


क्षण-क्षण जो हर श्वास को चखे प्रगति उसकी प्रखर हो, बेसुध हो, बेसब्र ओ सारी ! जाने चली किधर को !

#hindi #hindipoems #retrospection #हिन्दी #कविता

0 views0 comments

Recent Posts

See All
Post: Blog2_Post
bottom of page