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मैं आस की चादर बुनती थी

Updated: Mar 29, 2021


चित्र श्रेय: गूगल इमेजेस

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जब चाँद छुपा था बादल में, था लिप्त गगन के आँगन में, मैं रात की चादर को ओढ़े तारों से बातें करती थी । मैं नभ के झिलमिल प्रांगण से सपनों के मोती चुनती थी । मैं आस की चादर बुनती थी ॥


जब सूर्य किरण से रूठा था, प्रकाश का बल भी टूटा था, मैं सूर्य-किरण के क्षमता की गाथायें गाया करती थी । धागों के बाती बना-बना जग का अँधियारा हरती थी । मैं आस की चादर बुनती थी ॥


जब हरियाली मुरझाई थी, शुष्कता उनपर छायी थी, मैं भंगूरित उन मूलों को पानी से सींचा करती थी । पेडों की सूखी छाँवों में मैं पौधे रोपा करती थी । मैं आस की चादर बुनती थी ॥


जब ईश्वर भक्त से रुष्ट हुआ, कर्मोँ पर उसके क्रुद्ध हुआ, निष्ठा की गीली मिट्टी से विश्वास का पात्र मैं गढ़ती थी । मैं आस की कम्पित लौ से भी श्रद्धा को प्रज्ज्वल करती थी । मैं आस की चादर बुनती थी ॥

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