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बढ़ चलें हैं कदम फिर से

Surabhi Sonam

Updated: Mar 29, 2021

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छोड़ कर वो घर पुराना, ढूंढें न कोई ठिकाना, बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।


ऊंचाई कहाँ हैं जानते, मंज़िल नहीं हैं मानते। डर जो कभी रोके इन्हें उत्साह का कर हैं थामते।


कौतुहल की डोर पर जीवन के पथ को है बढ़ाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।।


काँधे पर बस्ता हैं डाले, दिल में रिश्तों को है पाले। थक चुके हैं, पक चुके हैं, फिर भी पग-पग हैं संभाले।


खुशियों की है खोज कि यात्रा तो बस अब है बहाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।।


जो पुरानी सभ्यता है छोड़ कर पीछे उन्हें अब। किस्से जो बरसों पुराने बच गए हैं निशान से सब।


की नए किस्सों को पग-पग पर है अपने जोड़ जाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।।


कोई कहे बंजारा तो बेघर सा कोई मानता है। अनभिज्ञ! अज्ञात से परिचय का रस कहाँ जानता है।


जोड़ कर टूटे सिरों को, विश्व अपना है रचाना। बढ़ चलें हैं कदम फिर से छोड़ अपना आशियाना।।

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