बड़े-बड़े शहरों के वे बड़े-बड़े मकान कितना छोटा कर देते हैं हमें कभी कभी
इनके ऊपर चढ़ कर अब तो पौधे से लगते हैं विशाल बड़गद के पेड़ भी
अपनी लम्बाई को यहाँ हम
मकान की ऊंचाई से नापते हैं
जो ऊपर की छत पर रहते है
उन्हें भगवान् सा समझते हैं
उन ऊपर वालों के हाथों में दे रखी है अपने जीवन की डोर अविश्वसनीय जानकार भी जीते हैं उन पर ही सबकुछ छोड़
नीचे की मंजिल में रहते हैं वे छोटे लोग
जिनकी मेहनत की बदौलत हम चढाते हैं अपने उस उपरवाले को भोग
मंझली मंजिल में रहते हैं
कुछ अज्ञान, कुछ अनजान लोग
संसार से विमुख,
अपनी ही दुनिया से परेशान लोग
इस पदक्रम में विलुप्त हैं सभी पर जब देखते हैं खिडकियों से बाहर कभी
पौधे से लगते हैं विशाल बड़गद के पेड़ भी बड़े-बड़े शहरों के वे बड़े-बड़े मकान कितना छोटा कर देते हैं हमें कभी कभी
क्यों नहीं निकल आते हम अपने मकानों से बाहर उस बड़गद के नीचे अपनी ऊंचाइयों को छोड़ कर फिर शायद हमें विशाल होने का आभास होगा
और, ना तो कोई लम्बा ना ही कोई छोटा होगा
टूट जायेगा पदक्रम तभी
और बड़े-बड़े मकान भी नहीं
बस, मिलकर रहेंगे हम सभी
होगी साझी धरती होगा साझा आसमान भी
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