कभी पात-पात, कभी जल-प्रपात, तैरी मैं तो हर प्रहर आठ। निर्झर प्रवाह की संगिनी मैं, मैंने देखे उसके सब घाट॥
सीखे निर्झर से पाठ कई, वो तरल हुआ मैं नम्य बनी। समर्पण कण-कण में भर कर, भावों में उसके सौम्य हुई॥
हूँ पूर्ण मैं निर्झर से मिलकर, जीवंत मैं उसके लहर-लहर। दृढ-संकल्पी उस-सा बनूँ, मैं मीन तरूँ निर्झर-निर्झर॥
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