चल पड़ा सन्यासी वो, अपनी ही एक राह पर तलवे को नग्न कर और भूत को स्याह कर। बढ़ चला वो अपने पग से मार्ग को तराशता आज बस उम्मीदें ही बन रही उसका रास्ता॥
जरुरत का सामान कुछ, काँधे पे अपने डाल कर लक्ष्य की चाहत में है, स्वयं को संभाल कर। चल रहे हैं कदम उसके कंकडों को चूमते कीचड से लथपथ हैं पूरे, अपने धुन में झूमते॥
राहें अब उसकी बनी हैं, वो एक पथिक है बस सराहती उद्यम है उसका धुंध भी बरस-बरस। घास में नरमी है छाई मिट्टी गर्मी दे रही वादियाँ भी उसके इस आहट से प्रेरित हो रही॥
अर्पित किया है आज खुद को सृष्टि के रंग रूप पर प्रकृति भी संलग्न उसमे, सौम्य किरणे, धूप कर। तृप्ति की ज्योत आज कण कण से उदीयमान है बिखरी हुई हवा में अब उसकी हर एक मुस्कान है॥
अपने पद की छाप छोड़, बढ़ रहा अपनी डगर पार हो हर अर्चनें, राह जो आये अगर। उत्साह अपनी कमर बांधे और साहस बांह पर चल पड़ा सन्यासी वो, आज अपनी राह पर॥
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