
शब्द तो गट्ठर में कितने बांध रखे हैं, स्याही में घुल कलम से वो अब नहीं बहते। हो तरंगित कागज़ों को वो नहीं रंगते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
बीज तो माटी में निज विलीन होते हैं, किन्तु उनसे लय के अब अंकुर नहीं खिलते। मनस की बेलों पर नव सुमन नहीं सजते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
मैं पुराने ऊन को फिर उधेड़ बिनती हूँ, पर हठी ये गाँठ हाथों से नहीं खुलते। उलझ खुद में वो नए ढांचे नहीं ढलते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
अंतः में अटखेलियाँ तो भाव करते हैं, किन्तु बन अभिव्यक्ति वो मुझसे नहीं रिसते। ले निरंतर रूप वो मुझसे नहीं बहते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
न कोई ज़ंजीर न बाधा की बंदी मैं, मनस से क्यों उदित हो तब काव्य नहीं बंधते। साहित्य के नव संस्करण का पथ नहीं गढ़ते, जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
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