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कविता की चोरी

Surabhi Sonam

Updated: Mar 29, 2021


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शब्दों को कर के लय-बद्ध, लिखे मैंने वो चंद पद्य, मन की इच्छा के भाव थे वो, मेरे अंतर्मन का रिसाव थे वो, वो मेरी कहानी कहते थे, मेरे निकट सदा ही रहते थे, वो प्रेम सुधा बरसाते थे, मेरे दिल को वो बड़ा भाते थे ॥


भाव-विभोरित करता रूप, हर पंक्ति थी करुणा स्वरुप, थे बिम्ब वो मेरी दृष्टि के, मुझे सर्वप्रिय वो सृष्टि में, मेरे सृजन की अनुपम प्रतिमा थे, वो मान की मेरे गरिमा थे, वो मेरी गाथा गाते थे, मेरे दिल को वो बड़ा भाते थे ॥


पर बक्से से एक अवगत वो, रहे दूर सदा ही जगत से वो, निंदा का डर, सहस भी कम, जाने कैसा मुझको था भ्रम, कभी किसी कर्ण न पड़े कभी, रहे मौन सदा वो छंद सभी, जो ह्रदय को मेरे लुभाते थे, मेरे दिल को जो बड़ा भाते थे ॥


एक रोज़ अजब एक बात हुई, एक दुर्घटना मेरे साथ हुई, वो बक्सा मुझसे छूटा कहीं, ढूंढा बहुत पर मिला नहीं, मेरे ह्रदय की करुणा रूठ गयी, हर भाव की गरिमा टूट गयी, वो पृथक बड़ा तड़पाते थे, मेरे दिल को जो बड़ा भाते थे ॥


उनको ढूंढी मैं चहुंओर, थी गयी रात, अब हुआ भोर, वो छंद मेरे फिर मिले नहीं, जो सूखे फूल फिर खिले नहीं, असहाय, छोड़ कर उनका लोभ, मैं भूली उनके विरह का क्षोभ, अब भूत मेरा दर्शाते थे, मेरे दिल को जो कभी भाते थे ॥


कई वर्ष घटना को बीत गए, जो प्रिय थे अब वो अतीत बने, विरह उनका फिर स्वीकृत कर, नए छंदों का बना नव संकलन, हर शब्द पर उनके धुल जमी, मैं मर्म भी उनका भूल गयी, पर ह्रदय में पीड़ा जगाते थे, मेरे दिल को जो बड़ा भाते थे ॥


नए छंदों को नयी भाषा दी, दुनिया पर विजय की आशा दी, अनुभव से फिर विश्वास जगा, बक्से में कभी न उन्हें रखा, नए पंख लगा, उन्हें उड़ने दिया, हर व्यक्ति से मैंने जुड़ने दिया, वो खुद पर बड़ा इठलाते थे, मेरे दिल को सब बड़ा भाते थे ॥


मैंने भी बंधन तोड़े सभी, खुद को उन्मुक्त भी किया तभी, फिर सभा की मैं भी गरिमा बनी, श्रोताओं की मैं भी हुई धनी, पर ग्लानि एक ही बनी रही, मेरे प्रिय को दुनिया न जान सकी, जो स्मृति में आते जाते थे, मेरे दिल को अब भी वो भाते थे ॥


एक रोज़ अजब फिर बात हुई, एक कवि से मेरी मुलाकात हुई, पूरे मंच को जिसने जीत लिया, पर मुझे बड़ा भयभीत किया, कविता थी उसकी नयी नहीं, मुझसे जो खोयी वो उसने कही, जो मेरी गाथा गाते थे, मेरे दिल को जो बड़ा भाते थे ॥


उसने कविता का अंत किया, श्रोतागण पर था मन्त्र पढ़ा, पर कविता तो वो मेरी थी, कभी मुझसे जो उसने चोरी की, मैं उठी अवाक क्रोधित होकर, उसकी चोरी पर क्षुब्ध होकर, जो शब्द अब उसे दर्शाते थे, जो उसकी कहानी गाते थे, वो दिल से तो मेरे आते थे, मेरे दिल को वही तो भाते थे ॥


फिर आया समीप वो कवि मेरे, “अरी! वंदन करता हूँ मैं तुझे, इस कविता की है रचयिता तू, तेरी सोच को भी मैं नमन करूँ, अनुपम हैं तेरे शब्द भाव, हो गया मुझे भी इनसे लगाव, जो प्रेम-सुधा बरसाते हैं, मेरे दिल को ये बड़ा भाते हैं ॥”


“जिस सभा में इनका गान किया, मेरे नाम का बेहद मान हुआ, पर ग्लानि में मैं जीता था, चूंकि मैं न इसका रचयिता था, अब क्षमाप्रार्थी हूँ मैं तेरा, जो कह दे तू वही दंड मेरा, मैंने लिया जो तुझे लुभाते थे, तेरे दिल को जो बड़ा भाते थे ॥”


मैं रही देखती उसे अवाक, है कैसा ये मनुष्य बेबाक, पहले कविता मेरी ले ली, अब क्षमा का है ये इक्षुक भी ? मैं क्षमा दान अब कैसे करूँ ? वर्षों के वियोग को कैसे भरूँ ? झूठे अश्रु न लुभाते हैं, इसने लिया जो मुझे भाते हैं ॥


फिर अन्तः ने झंक्झोरा मुझे, मेरी निद्रा को था तोड़ा जैसे, “तूने रखा था जिन्हें बंद, किया इस कवि ने उनको स्वछन्द, श्रोतागण से तू वंचित रखी, कभी मोल न उनका समझ सकी, जो भाव तेरे दर्शाते थे, तेरे दिल को जो बड़ा भाते थे ॥”


“तूने बक्से में जब बंद किया, तूने उनके अर्थ को व्यर्थ किया, वास्तव में तूने ही रचना की, पर जीवन दायक है ये कवि, जिन शब्दों को तराशा तूने, गा कर उन्हें है निखारा इसने, अब भाव वो सब के दर्शाते हैं, दिल के सबको अब भाते हैं ॥”


“सिक्के को पलट तू देख परे, चोरी से तो कला का मान बढे, जो छंद बक्से में थे बंद कभी, अब जानते उनको लोग सभी, स्वामित्व से तो है परे कला, जब उसे यथोचित यश है मिला, तेरी कला के सब गुण गाते हैं तेरे छंद हर दिल को भाते हैं ॥”

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