
उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ मैं, बेड़ियों के पार हूँ मैं, अवसरों के रास्ते पर खोले अपने द्वार हूँ मैं, खिड़कियाँ जो स्पर्श करती लहरों पे उन सवार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं।
अब पवन पर पाँव रख कर छोड़ दी वो ज़मीन मैंने, जकड़े थी जो आत्मा को वर्षों से बंधन में अपने, सरहदों को तोड़ती जो उस ख़ुशी की धार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं।
झाँकते जो स्वप्न सारे पंछियों के पर में छुप कर, थाम उनकी उंगलियां मैं चूमती बादल को उड़ कर, पर्वतों की चोटियों पे निर्भीक करती विहार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं।
खोल अपनी बांह को मैं तोड़ती हूँ डर को अपने, छोड़ती संकीर्णता को, तज धरा उस नभ की होने, पार अपनी सीमाओं के रचती नव संसार हूँ मैं, उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ, अब बेड़ियों के पार हूँ मैं।
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