चित्त हो के कैद, हो ज्वाला-दास, छोड़े है धीरज तट की आस, विश्वास में होता विष का वास, दुखी, वन में विचरन करता है। मैं खुद से विमुख हो जाती हूँ, जब मुझको वो वश धरता है॥
व्याकुल लहरों में डूब डूब, अग्नि वर्षा को चूम चूम, उपमा के वन में घूम घूम, तृष्णा-पर्वत मन चढ़ता है। मैं खुद से विमुख हो जाती हूँ, जब मुझको वो वश धरता है॥
तोड़ूँ कैसे इस पिंजड़े को? छोड़ूँ कैसे उपमा वन को? सुखी फिर से कैसे करूँ मन को? मन, विकल, विकार में तरता है मैं खुद से विमुख हो जाती हूँ, जब मुझको वो वश धरता है॥
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