द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊँ मैं। सब कहते हैं वो अपने हैं किसके संग हो जाऊं मैं?
हर राह लगती है सूनी हर पथिक लगता है भटका, पूछूं किससे राह मैं अपनी सपना जो पूरा हो मन का। सही-गलत के जटिल प्रश्न में उलझा बैठा है मेरा मन, किस राह को मैं अपनाकर कर दूं उसे ये जीवन अर्पण। आज नहीं कर पाती निश्चय किस पथ पर बढ़ जाऊं मैं? द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊं मैं॥
हर श्वास कहती है मुझसे समय भी मेरे पास नहीं है, दुविधा बड़ी है और लगता है भाग्य भी अपने साथ नहीं है। किम्कर्तव्यविमूढ़ खड़ी मैं सोचूं जाने आगे क्या हो, मना रही हूँ ये इश्वर से जिसे चुनुं वो राह सही हो। नाव खड़ी है बीच भंवर में किस तट पार लगाऊं मैं? द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊं मैं॥
रौद्र है वो सूरज नभ का और पवन भी है जोश में, गलत दिशा में मैं ना चल दूं कहीं इन झोकों के आक्रोश में। सपने जो देखे हैं मैंने टूट ना जाएँ वो आँखों में, नए उभरते जो पत्ते हैं घुट ना जाये वो शाखों में। अंत पता है इस कथा का शब्द कौन से डालूं मैं? द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊं मैं॥
बड़गद से घनी छाँव मैं पा लूं या अमिया की खटास मैं चख लूं? लाभ, गुण किसके आधार पर नियति की मैं चाल परख लूं? इच्छा की तो बात ही छोड़ी सोचूँ फल के लोभ को तज कर, पर कैसे उत्तर मैं पाऊं प्रश्न हज़ारों खड़े यहाँ पर। मन अधीर हुआ जाये रे बंधू! वश कैसे अब पाऊं मैं? द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊं मैं॥
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