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पतझड़

कल्पना करो, कुछ दिनों में ये बंजर हो जायेंगे। ये हवा के संग लहलहाते पत्ते, अतीत में खो जायेंगे॥ जब बारिश की बूंदों में ये पत्ते विलीन होंगे। क्या अश्रु में लिप्त तब ये कुलीन होंगे? विरह की ज्वाला में क्या ये पेड़ भी स्वतः जलेंगे? या नवजीवन की प्रतीक्षा में यूँही अटल रहेंगे? क्या हवा के थपेड़ों में झुक कर, टूट मरेंगे? या चिड़ियों के घोंसलों का फिर ये आशियाँ बनेंगे? शायद, यूँहीं, सभ्यताओं का अंत होता है। या शायद,आरम्भ ही इस अंत के परांत होता है॥ #HindiPoetry #Poems #Reflections #ह

ये लहरें किधर हैं जाती?

डूब रहा है सूरज और गोधूलि हुई है बेला, बादल के सिरहाने पर किरणों का लगा है मेला । ऐसे में ये चंचल लहरें छोड़ के अपने घर को, बेसुध हो, बेसब्र वो सारी, जाने चली किधर को ! नील से गहराता है गगन और चन्द्र का चढ़ता यौवन, श्वेत रश्मि से प्रज्ज्वल है तारों से सज्ज ये उपवन। शीतलता की छाँव में भी वो बांधे हुए हैं कर को, बेसुध हो, बेसब्र वो सारी, जाने चली किधर को ! समा के सारे नील गगन को अपने उर के अंदर, क्षितिज से भेंट हुई तो समझें खुद को सभी सिकंदर ! वक्त नहीं कि रुके किनारे साराह सकें

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