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चल, उचक, चंदा पकड़ लें

पक चली उस कल्पना को रंग-यौवन-रूप फिर दें । संकुचित उस सोच के पंखों में फिर से जान भर दें । तर्क के बंधन से उठ कर बचपने का स्वाद चख लें ।...

कविता की चोरी

शब्दों को कर के लय-बद्ध, लिखे मैंने वो चंद पद्य, मन की इच्छा के भाव थे वो, मेरे अंतर्मन का रिसाव थे वो, वो मेरी कहानी कहते थे, मेरे निकट...

खोयी पहचान

भू के कुछ वर्गों के पीछे हम लड़े सदियों यहाँ । मच गया विध्वंस पर किसको भला है क्या मिला ॥ संघर्ष के इतिहास में धूमिल है गाथा प्रान्त की ।...

स्मारक का गौरव

प्रम्बनन के जीर्ण  (छवि: प्रतीक अग्रवाल) टूटे-फूटे एक स्मारक ने घंटों की मुझसे बात । पिछले वर्षों के भूकंपों ने तोड़े थे उसके हाथ ॥ आया था...

उजाले से आलिंगन

अशांत व्यग्र अतृप्त है मन भावों में कुंठित, लिप्त है मन। तम प्रबल आंधी सा बनकर छीनता मन से है यौवन॥ किन्तु है एक चन्द्र ज्योति नभ के माथे...

ईर्ष्या

चित्त हो के कैद, हो ज्वाला-दास, छोड़े है धीरज तट की आस, विश्वास में होता विष का वास, दुखी, वन में विचरन करता है। मैं खुद से विमुख हो जाती...

मेरा कमरा

समतल भाव, उजला है चेहरा, रसोई-लगा मेरा वो कमरा। खिड़की के बाहर को झांकता, बारिश की लय पर है बरसता, सूरज की लौ को है तरसता, हवा-थपेड़ों...

निर्झर और मीन

कभी पात-पात, कभी जल-प्रपात, तैरी मैं तो हर प्रहर आठ। निर्झर प्रवाह की संगिनी मैं, मैंने देखे उसके सब घाट॥ सीखे निर्झर से पाठ कई, वो तरल...

एक ही रंग

रंग-रंग मस्तक पे चढ़ा हो रंग-रंग हर अंग लगा हो। रंग ऐसा जो कभी न उतरे, ऐसे रंग का भंग पिया हो॥ रंग ऐसे हम चुनें जो मिलके, एक ही रंग से मुख...

उन्मुक्त हूँ मैं

उन्मुक्त हूँ, आज़ाद हूँ मैं, बेड़ियों के पार हूँ मैं, अवसरों के रास्ते पर खोले अपने द्वार हूँ मैं, खिड़कियाँ जो स्पर्श करती लहरों पे उन सवार...

अहम्

हरी-हरी ज़मीन से ऊँची शाख ने कहा, “मैं तना विशाल-सा, शान से यहाँ अड़ा, तुच्छ, तू ज़मीन पर, धूलग्रस्त है गड़ा, क्या महान कर रहा, तू वहाँ...

बेटी घर आयी है

देखो आया अवसर पावन, स्नेह-विभोर घर का जन-जन, हर्षित उमंग जागा हर मन, आशीष छलकता है कण-कण, नवज्योत घर पर छाई है, देखो! बेटी घर आयी है। ओढ़े...

बंद दफ्तर

ताले में वो बंद दफ्तर उसमे बूढी वो कुर्सियाँ, चुप से कोने में पिरोती कर्कशी खामोशियाँ। कब से हो के मौन बैठे टाइपराइटर वो पुराने, गूंजता...

हे प्रिय!

हे प्रिय! पकड़ लो हाथ कभी मैं भी दो क्षण फिर साथ चलूँ। जो स्वप्न मौन में आहट दें उनका नयनों से स्पर्श करूँ॥ हे प्रिय! राग बन मिलो कभी तेरी...

स्वयं को परमार्थ कर

रात, बादल से निकल कर, चाँद ने टोका मुझे, “है क्यों इतना तू परेशां, कैसी है चिंता तुझे? क्यों तू एकाकीपने की ओट में लेटा रहे? क्यों तू...

करूँगा मैं ही ये व्यूह-खंडन

पृष्ठभूमि : अभिमन्यु चक्रव्यूह के आखिरी चरण में हैं। वे खुद को ये समझा रहे हैं कि अंतिम चरण की लड़ाई कैसे उनके कौशल पर निर्भर करती है ।...

Tissue paper और कलम

उस रात बादलों के घेरे में यूँही अकेले चलते चलते। आया एक Tissue Paper कहीं से अचानक उड़ते उड़ते॥ कुछ अधूरे शब्द काली स्याही से लिखे हुए।...

मनोव्यथा

क्यूं सूर्य की धूप अब घटती नहीं है? क्यूं नियति से बदलियाँ छटती नहीं हैं? हर दिशा झुलसी है अग्नि के प्रलय से क्यूं धरा पर कोपलें खिलती...

आत्म-मंथन

द्वंद्व छिड़ी हुई है मन में किस पथ को अपनाऊँ मैं। सब कहते हैं वो अपने हैं किसके संग हो जाऊं मैं? हर राह लगती है सूनी हर पथिक लगता है भटका,...

तुम्हारा लैबकोट

तुम्हारा लैबकोट मिला एक दिन तुम्हारी कुर्सी पर लटका हुआ खोया- खोया मायूस सा, चेहरा बिलकुल उतरा हुआ। किसी ने सुबह से उसका हाल ना पूछा था...

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